चलता ही जाता हूँ राह निहारे ,
चाहे हो पहाड़ या नदी के किनारे ।
सूरज की किरणे आसमां से आकर ,
छूती है तल को धरती में समाकर ।
लहलहाते पेड़ , खिलखिलाते फूल ,
रसपान करता भौंरा जाता सब भूल ।
चह-चहाते पच्छी , शोर मचाता सागर ,
बहती हवाएं कहती मुझसे आकर ।
की देखो ये प्रकृति के सुन्दर नज़ारे ,
खड़े है रास्ते में बांह पसारे ।
कैसी मोहक है ये प्राकृतिक सुन्दरता ,
जीवन में आनंद और लाये मधुरता ।
रोकता हूँ कलम इस सपने के साथ ,
कि प्रकृति को सवांरने में आगे बढेंगे हाथ ।